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जिया रानी के पत्थर वाले घाघरे की कहानी, जिसे पूजता है कत्यूर वंश

– हल्द्वानी के रानीबाग में है वो रंगीन पत्थर, जिसे जिया रानी का घाघरा कहा जाता है

Jiya Rani’s Ghagra at Chitrashila Ghat, DDC : उत्तराखंड को देवभूमि कहा जाता है। मान्यता है कि यहां के कण-कण में देवताओं का वास है। हल्द्वानी में गौला नदी के किनारे भी एक ऐसी ही मान्यता को लोग अर्सों से पूजते रहे हैं। नदी किनारे एक ऐसी विशाल शिला है, जो किसी घाघरे (लहंगा) की तरह दिखती है। उस शिला पर रंगीन पत्थर ऐसे दिखते हैं, मानो किसी ने रंगीन लहंगा बिछा दिया हो। माना जाता है कि जिया रानी ने अपने सतित्व की रक्षा के लिए शिला का रूप ले लिया था। जिया रानी को यह स्थान बेहद प्रिय था। यहीं उन्होंने अपना बाग बनाया था और यहीं अपने जीवन की आखिरी सांस भी ली। जिया रानी की वजह से ही यह बाग आज रानीबाग नाम से मशहूर है।

जिया रानी का वास्तविक नाम मौला देवी था, जो हरिद्वार के राजा अमरदेव पुंडीर की पुत्री थीं। बताया जाता है कि वर्ष 1192 में देश में तुर्कों का शासन स्थापित हो गया था, लेकिन उसके बाद भी दो शताब्दी तक हरिद्वार में पुंडीर राज्य बना रहा। मौला देवी राजा प्रीतमदेव की दूसरी रानी थीं। मौला रानी से तीन पुत्र धामदेव, दुला, ब्रह्मदेव हुए, जिनमें ब्रह्मदेव को कुछ लोग प्रीतम देव की पहली पत्नी से जन्मा मानते हैं। मौला देवी को राजमाता का दर्जा मिला और उस क्षेत्र में माता को ‘जिया’ कहा जाता था, इसलिए उनका नाम जिया रानी पड़ गया।

ये है जिया रानी के घाघरे की कहानी
कत्यूरी वंशज हर साल उनकी स्मृति में यहां पहुंचते हैं। बताया जाता है कि कत्यूरी राजा प्रीतमदेव की पत्नी रानी जिया यहां चित्रेश्वर महादेव के दर्शन करने आई थीं। जैसे ही रानी नहाने के लिए गौला नदी में पहुंचीं, वैसे ही रुहेलों की सेना ने उन्हें घेर लिया। जिया रानी परम शिव भक्त थीं। उन्होंने अपने ईष्ट देवता का स्मरण किया और गौला नदी के पत्थरों में समा गईं। रुहेलों ने उन्हें बहुत ढूंढा, लेकिन जिया रानी कहीं नहीं मिलीं। कहते हैं कि उन्होंने अपने आपको अपने लहंगे में छिपा लिया था और जैसे ही दुश्मनों ने उनके लहंगे को हाथ लगाया, वह उस लहंगे के आकार में ही शिला बन गई थीं। आज भी यह शिला यहां देखने को मिलती है।

पुजारी हरीश चंद्र गिरी ने दी जानकारी
पुजारी हरीश चंद्र गिरी बताते हैं कि जिया रानी यहां गुफा में रहकर महादेव की तपस्या करती थीं। माता जिया रानी कत्यूरी वंश की रानी थीं। उत्तराखंड में जिया रानी की गुफा के बारे में एक किवदंती काफी प्रचलित है। कत्यूरी राजा पृथ्वीपाल जिन्हें प्रीतमदेव के नाम से भी जाना जाता था, की पत्नी रानी जिया रानीबाग में चित्रेश्वर महादेव के दर्शन करने आई थीं। वह बेहद सुंदर थीं, जैसे ही रानी नहाने के लिए गार्गी नदी (गौला नदी) में पहुंचीं, वैसे ही रुहेलों की सेना ने वहां घेरा डाल दिया। जिया रानी महान शिवभक्त और पवित्र पतिव्रता महिला थीं। ऐसी परिस्थिति में उन्होंने अपने ईष्ट देवताओं का स्मरण किया और गौला नदी के पत्थरों में ही समा गईं। नदी के किनारे एक विचित्र रंग की शिला आज भी देखने को मिलती है, जिसे चित्रशिला कहा जाता है। स्थानीय उत्तराखंडी मान्यताओं में कुछ लोग इस शिला को जिया रानी का घाघरा कहकर पुकारते हैं।

मकर संक्रांति में कत्यूरी वंशज करते है जिया रानी की पूजा
कुमाऊं-गढ़वाल के विभिन्न इलाकों से मकर संक्रांति से पहले दिन विभिन्न इलाकों के कत्यूरी वंशज अपनी कुल देवी और आराध्य देवी की पूजा के लिए रानीबाग आते हैं। मकर संक्रांति पर्व पर रानीखेत, द्वाराहाट, भिकियासैंण, लमगड़ा, बासोट (भिकियासैंण), धूमाकोट, रामनगर, चौखुटिया, पौड़ी आदि इलाकों से कत्यूरी वंशज के लोग रानीबाग पहुंचते है। गार्गी नदी में स्नान करने के बाद जियारानी की गुफा में पूजा करते और रात्रि में जागर लगाते है और कुल देवी से कष्ट निवारण की मन्नत मांगते हैं।

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