– ब्लैक डेथ के सामने कुछ भी नहीं था कोरोना, सन् 1346 में काला सागर से मेसिना इटली के सिसिली बंदरगाह पहुंची थी बीमार
Black Death or Plague, DDC : 13वीं शताब्दी में ब्यूबोनिक प्लेग यूरोप (इटली) में फैला। 6 से 7 साल के अंदर इस बीमारी ने यूरोप में ढाई करोड़ लोगों को मार डाला। स्थिति इतनी भयावह थी कि इस बीमारी को ब्लैक डेथ नाम दिया गया। आज के दौर में फैली कोरोना बीमारी के किस्से ब्लैक डेथ के सामने कुछ भी नहीं है। आश्चर्य की बात यह है कि यह बीमारी काला सागर से यूरोप आ रहे 12 जहाजों से पहुंची थी।
सिसिली बंदरगाह से पूरे इटली में फैला प्लेग
सन् 1346 में काला सागर से 12 समुद्री जाहज मेसिना के सिसिली बंदरगाह पहुंचे। जहाज से बहुत समय तक कोई नीचे नहीं उतरा तो लोगों ने अंदर जाकर देखा और भौचक्के रह गए। अंदर लोग बीमार थे और बाकी लोग मर चुके थे। उनके शरीर से खून और मवाद बह रहा था। हर तरफ चीख-पुकार थी। तुरंत ही उन जाहजों को वापस भेज दिया गया, लेकिन तब तक देर हो चुकी थी। वायरस बंदरगाह से शहर तक पहुंच गया।
बुखार, काले फफोले और फिर बहने लगा मवाद
अगले पांच सालों में उसने यूरोप में ऐसा तांडव मचाया कि ढाई करोड़ लोग इस बीमारी से खत्म हो गए। यूरोप से बाहर निकलकर यह बीमारी चीन, भारत, फारस आज का ईरान, सीरिया तक भी पहुंची थी। इस बीमारी में लोगों को बुखार आता था। शरीर में काले फफोले पड़ जाते थे। जिससे मवाद नीचे गिरता था। यह बीमारी तंत्रिका तंत्र पर भी असर करती और ज्यादातर लोग कुछ समय बाद मर जाते।
सड़कों पर पड़ी लाशें, बीमारी को समझने लगे श्राप
ब्लैक डेथ से बचने के लिए शहर के लोग गांव की तरफ भागे, लेकिन वहां भी यह बीमारी फैल गई। उस समय चिकित्सकों ने लोगों का इलाज करने से मना कर दिया था। लोग इसे ईश्वर का श्राप समझते। सड़कों पर लाशें पड़ी होतीं। लाशों का अंतिम संस्कार भी नहीं होता था। लोग अपनों को छोड़कर भाग जाते थे।
तब से ही शुरू हुआ था क्वारंटीन
बाद के सालों में जब ब्लैक डेथ यानी ब्यूबोनिक प्लेग का असर कम हुआ तब जो भी पानी का जहाज बाहर से आता, उस जहाज पर मौजूद लोगों को अनिवार्य तौर पर 30 दिन तक बंदरगाह पर अलग रखा जाता था। कोरोना बीमारी के दौरान भी लोगों को क्वारंटीन किया जाता था।
आज भी हर रोज 3 की जान ले रहा प्लेग
ब्यूबोनिक प्लेग आज भी है, लेकिन अच्छी बात यह है कि इसका उपचार मौजूद है। अब बहुत ही आसानी से इसका उपचार हो जाता है। फिर भी विश्व स्वास्थ्य संगठन का कहना है कि हर साल करीब 1000 लोग पूरी दुनिया में इस बीमारी से मरते हैं। यानी हर रोज करीब 3 लोगों की जान जा रही है।